उस समय न तो सेटेलाइट थे और न ही दूरदर्शन। रेडियो रहे होंगे, किंतु मेरे गाँव में तो रेडियो भी नहीं था। इसलिए मौसम-संबंधी हालचाल जानने के लिए घाघ और भड्डरी
के अलावा पुरोहित का पत्रा और हरखू कारंदा का स्वरोदय ज्ञान ही आधार बनता था। पानी कब बरसेगा, कब खुलेगा? ओले किस दिशा में पडे़गे? आँधियों का जोर कैसा रहेगा?
ऐसे अनेक प्रश्नों के हल गाँववाले या तो ''चींटी ले अंडा चले, चिड़ी नहावे धूर। ऐसा बोले भड्डरी, बरसा हो भरपूर।'' या ''तीतर बरनी बादरी, विधवा काजर रेख। वे
बरसें वे घर करें, कहे भड्डरी देख।'' या मृगशिरा नक्षत्र या पुरवइया की शीतलता से ही खोज पाते थे। इनके अलावा मौसम की जानकारी का एक और स्त्रोत मेरी दादी थीं।
उनके पास न जाने कितनी मिथकीय कहानियाँ थीं, कितने टोने-टोटके थे, जिनसे वे प्राकृतिक परिवर्तनों का संभावित रिश्ता जोड़ लेती थीं। इस तरह की मिथकीय
कहानी-परंपरा की गाँव में वे अंतिम जानकार थीं।
एक साल सावन तक पानी नहीं बरसा। खेतों में दरारें पड़ गईं। नदी-नाले सूखकर काँटा हो गए। अवर्षण का पहला प्रकोप ढोर-डाँगर झेलते हैं, सो बड़ी तादाद में वे मरने
लगे। मनुष्य के प्यासे रहने की नौबत आ गई। अखंड कीर्तन, यज्ञ-हवन के साथ-साथ ''मेंढक-मेंढक पानी दे'' गाती लड़कियों ने मरे मेंढक का जुलूस निकाला। गाँव की
देव-प्रतिमाओं पर गोबर का लेपन किया गया। गाँव की स्त्रियों ने आधी रात में नग्न होकर खेतों में हल चलाया। लेकिन पानी नहीं बरसना था सो नहीं बरसा। इंद्र देवता
नहीं पसीजे। दादी ने तब अपनी स्मृति में से कुछ कहानियाँ टटोलीं। बोलीं, ''पानी को किसी व्यापारी ने धरती में गाड़ दिया है। पानी गाड़ दिया जाए तो फिर अवर्षा से
अकाल पड़ता है। चीजें महँगी हो जाती हैं। इसका लाभ बनज करनेवाले व्यापारी को मिलात है।'' फिर वे सुनाने लगीं कि ''राजशाही का वक्त था। अवर्षा का ऐसा ही समय आया
था। राजा ने एक व्यापारी का आँगन खुदवाया तो पीतल के कलश में पानी गड़ा मिला। कलश में भरा पानी रो रहा था।'' हम लोग बच्चे थे, कहानी से प्रभावित तो हुए, किंतु
समझ में कुछ नहीं आया था।
आज दादी की बातें के नऐ-नऐ अर्थ खुलने लगे हैं। लगता है, दादी ठीक ही कहती थीं। पानी को गाड़ा जाएगा तो वह सड़ेगा। पानी को तोला तो पानी की हैसियत छोटी हो
जाएगी। पानी बाँधा जाएगा तो फिर वह पानी नहीं रहेगा। पानी तो धरती में से उमगता है। वह धरती के ऊपर आने के लिए उछाल लगाता है। धरती की परती को थोड़ा हटाया और
पानी का हुल्ला फूटा। धरती की शस्य-श्यामलता का आधार है उसका पानी। पानी गतिशील रहे तो पानी है। पानी को धरती सोखती है, तब भी वह गतिशील रहता है। धरती की नस-नस
में पानी का प्रवाह बनता है। धरती की धमनियों में पानी रक्त बनकर गतिशील होता है। जल-संग्रहण हो, किंतु वह सड़ न पाए। वह धमनी के भीतर थक्का न बन जाए। इसलिए
पानी को मुक्त करो, उसे बाँधो मत। जैसे मुद्रा अपने प्रवाह में सार्थक होती है, वैसे पानी अपनी चक्र-लीला में ही धरती पर अपनी कविता रचता है - वाष्प बनकर, बादल
बनकर, बूँद बनकर, नदीं-नालों की हँसी बनकर, कुओं-तालाबों की हिलोर बनकर, स्प्रिंकलर की फुहार बनकर। यह पानी ही इंद्रधनुष रचता है अपनी बूँद-बूँद में।
रहीम ने जीवन के इसी इंद्रधनुष को पानी के कतरे-कतरे में उगते देख था। वही मोती में आब बनकर उसकी श्री, शोभ और मूल्यवता बढ़ाता है। आदमी में यही तेजस्वी
स्वाभिमान, उर्वर पौरुष और करुणा की आर्द्रता बनकर उद्दीप्त होता है। आटे में यही रस बनता है, स्वाद बनता है, रोटी बनकर भूख की आग को बुझाता है। मंगल ग्रह पर
वैज्ञानिकों ने वाष्प की एक बूँदनुमा आकृति देखी और उनके चेहरे चमक उठे। पानी जीवन की निशानी है। पानी जीवन का पर्याय है। पानी से ही जीवन जाग्रत होता है।
उपनिषद् का ऋषि कहता है - 'इस संसार में पहले कुछ नहीं था। कुछ भी नहीं था। पानी-ही-पानी था। पानी का पारावार। उससे ही हिरण्यगर्भ ने जन्म लिया; सृष्टि का विकास
हुआ और प्राणियों की श्रृंखला चल पड़ी।' कबीर का दार्शनिक भी यही कहता है- 'जल में कुंभ कुंभ में जल है, ऊपर नीचे पानी। फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ कथौ
गियानी।' जल में ही जीवन की ज्योति जागती है। अतः किसी ग्रह पर एक बूँदनुमा वाष्प का आभास हो जाना ही वहाँ जीवन की आर्द्रता की आश्वस्ति है। वहाँ कोई न कोई है।
बैक्टेरिया का परमाणु-प्रमाण जीव जैसा कुछ भी वहाँ हो सकता है अपनी लीला रचे हुए। जल की एक वाष्प-बूँद भी जीवन-लीला की विकास-संभावनाओं के सपनों को सँजोए रहती
है।
विज्ञान ने इतना विकास किया। जल निकालने की नई-नई तरकीबें आ गईं। धरती के गर्भ से बेतहाशा जल खींचा जा रहा है। जगह-जगह धरती को छेद दिया गया है। धरती का जल-स्तर
गिर रहा है। यही कुएँ कभी खाली नहीं होते थे, बैसाख-जेठ की चिलचिलाती धूप में भी ये रस-स्त्रोत बने रहते थे। ये केवल कुएँ नहीं थे - एक पूरा गाँव थे, गाँव का
चैका-चूल्हा थे, गाँव की कथा-भागवत थे, गाँव के गीत-भजन थे, गाँव के झगड़ा-फ़साद थे, गाँव की हिलनी-मिलनी थे - पनघट पर मनघट छलकते थे, कुएँ राहगीर से लगा-लगी की
रस-कथा थे। वहाँ अनियारी आँखों के बाणों से घायल पथिक की प्यास ही नहीं बुझती थी। नवयौवना जलधार बनकर पथिक की अँजुरी में उँडेलती जा रही है। उसकी समूची देह,
उसका एक-एक अंग, उसकी एक-एक मुद्रा रस की बूँद बनकर टपक रही है। पहले वह घिर्रीं पर डली रस्सी बनी, फिर वह कुएँ में डूबा घट बनी। फिर वह घट में छलक उठी जल की
हिलोर बनी और फिर प्यासे पथिक की अँजुरी के छिद्रों में से रिस गई बूँद-बूँद। लेकिन पथिक की अँगुलियों में अभी भी शेष है - जलधार के स्पर्श से उमग आई सिहरन। घर
में सास और ननद ने मायकेवालों की ताऽने मारे, टहूके सुनाए तो घर की नववूध पहुँच गई कुएँ पर और वह बड़ा-सा आँसू बनकर चू पड़ी कुएँ में। कुएँ में वह आँसू तैर रहा
है डूबने के लिए और कुआँ है कि उसे बार-बार ऊपर उछाल रहा है। कह रहा है 'नहीं दुलहिन! नहीं, कुलवंतिनी नार! नहीं, मेरी बेटी! मैंने तुम जैसी अनेक बेटियों के
आँसुओं को पिया है। मैं खारा हो जाता आँसू पी-पीकर, यदि मुझे माँ बनती दुलहिन की दूध-धार न मिलती। बहू, जाओ, घर जाओ। दूधों नहाओ और पूतों फलो!' वह बड़ा-सा आँसू
फिर गगरी में भर उठता है कच्चे फेनिल दूध-सा और नववधू सोहर गाती लौट आती है। सास-ननद उसके स्वर में स्वर मिलाने लगती हैं - 'सीता के वन में लाल हुए नंदलाल
कन्हैया कोई नहीं।' सोलह सिंगार कर, सिर पर घड़ा रखे छातियों में दूध छलकाती पहलौठी माँ बच्चा जनने के बाद "कुआँ" की रस्म करने जा रही है। सास-ननद सोहर गाने
में डूब गई हैं - 'ऊपर बदर घुमड़ाया नीचे बहू पनियाँ को निकरी।' दूध छलकाती सद्यःप्रसूता कुआँ के पास जाएगी तो बादल घिरेंगे ही। कुएँ का पुजन हुआ और कुएँ में
दूध की धार निचोड़ी नई-नवेली माँ ने अपने स्तनों से - 'लो, कुआँ तुम पहले मेरा दूध पिया। मैं माँ हूँ। वत्सला हूँ।ʼ कुआँ मन-ही-मन हँस पड़ा' - उस दिन मैंने कहा
था न कि मैं तो खारा हो जाता, यदि तुम जैसी माओं का दूध न मिलता।'
न रहे वे कुआँ, न रहीं वे कुलवंतिनें, न रहे वे सोहर ओर न रहीं वे दूध की धारें।
गर्मियों में कुआँ भाराक्रांत हो जाता है। जैसे भीतर से कोई काला बवंडर उठनेवाला है - ऐसा भभूका-सा जागता है कुएँ में से। कुएँ के भीतर बैठा है मुक्तिबोध का
ब्रह्म राक्षस, जिसने न केवल कुएँ का सारा पानी पी लिया है, अपितु अपने गरम-गरम श्वासों से उसे एक अग्निकुंड में तब्दील कर दिया है। खाली कुएँ के पास जाने से डर
लगता है। जब कुएँ में जीवन का प्रतीक जल ही नहीं रहा, तब कुआँ ही कुआँ रहेगा? वह भुतहा हो गया है। गाँव के कुएँ गए, सरकारी हैंडपंप आए। बेरहमी से उन्हें चलाया
गया। सरकार के हैंडपंप थे, आखिर कब तक चलते? कब तक साबुत रहते? उनके अंजर-पंजर बिखर गए। कागज़ के घोड़े दौड़े तो एकाध हैंडपंप हड़हड़ाने लगा। फिर छह महीने बाद
वही हालत! हैंडपंप पानी तो नहीं देता, किंतु पंच-सरपंच और सब-इंजीनियार को धन-प्रसाद ज़रूर हर छह महीने बाद बाँट देता है। बंदर-बाँट में कभी बिल्लियों की रोटी
बंदर खा गया था और न्याय की तराजू लटकी की लटकी रह गई थी। अब बंदर बिल्लियों को पानी पी रहा है और बिल्लियाँ प्यासी मर रही हैं।
सारी जल-योजनाएँ दम तोड़ रही हैं। नगरपालिकाएँ चार-चार दिन में चुल्लू-भर पानी नहीं बाँट पा रही हैं। दो बजे रात में लोटा दो लोटा पानी मिल जाए तो अपना भाग्य
सराहो। पानी की किल्लत ने नगरों का जीवन असह्य बना दिया है। पानी के लिए झगड़े हो रहे हैं, हत्याएँ हो रही हैं और पानी हैं कि और नीचे, ओर नीचे सरकता जा रहा है।
पानी जितना नीचे सरकेगा, उतना झगड़ा-फसाद करवाएगा।पानी की राजनीति चलेगी। आम आदमी पानी के जुगाड़ में भटकेगा। हो सकता है, आगे चलकर पानी की भी राशनिंग जैसी
व्यवस्था सरकार को करनी पड़े। पानी की चोरी-चकारी भी बढ़ जाएगी। पानी के आसन्न संकट से बचने के लिए हमें अपना मन पानी जैसा निर्मल बनाना पड़ेगा, पानी जैसा पतला
बनाना पड़ेगा। मन का प्रदूषण ही पानी प्रदूषण बनता है।
फैक्टरी की कमाई-धमाई से हम अपनी तिजोरी भरें और उसके मल-मूत्र से हम नदियों को बदल दें कुंभीपाक नरक में। धरती से पानी खींकर हम फसलें लहलहाएँ और धरती के घावों
को सहलाएँ तक न ! अंधाधुंध तरीके से जंगल काटते जाएँ और जंगल के हरेपन को अपनी दीवारों पर पेंट करते रहें तो बादलों को कौन न्योता देगा? बेतहाशा तरीके से
जनसंख्या का विस्फोट होता रहे और धरती का चेहरा और गंदा होता जाए तो पानी के बिना धरती की मलिनता कौन पोंछेगा? पहले अपने भीतर की सफाई जरूरी है। मन को तीर्थ
बनाओ! 'तीर्थों कुर्वंति तीर्थानि।' निर्मल-मन संत ने स्नान किया। थोड़ा-सा निर्माल्य जैसा पानी स्नना के बाद बच गया स्नना-स्थल पर। रात में दो स्त्रियाँ आईं।
उन्होंने उस निर्माल्य जल में नहाया। संत के शिष्य ने उन स्त्रियों से उनका परियच पूछा। उन्होंने कहा, 'हम गंगा और जमुना हैं। गंदे मनवाले लोगों को
नहलाते-नहलाते हम अपवित्र हो रही हैं। इन संतक के पवित्र निर्माल्य जल से हम अपने-आपको पवित्र करने के लिए अक्सर आती रहती हैं।' नदियाँ, कुएँ, बावडियाँ, नल,
धरती-सब मन की निर्मलता चाहते हैं। जल को मन के स्वार्थ-घट में मत गाड़ो। उसे मुक्त करो, उसे बहने दो। वह बहेगा, धरती की धमनियों में प्रवाहित होगा तो धरती को
और सुंदर, और बेहतर बनाएगा। पानी को व्यापार में मत बदलो!